Poetry Alok Saini Poetry Alok Saini

किरदार होना चाहिए

ना कि गोया हाज़िर ए दरबार होना चाहिए
आदमी को साहिब ए किरदार होना चाहिए

थूक दें फिर चाट लें, फिर थूक कर फिर चाट लें
इस सियासी रस्म पे धिक्कार होना चाहिए

थे बहुत वादे, मगर वादों का हासिल कुछ नहीं
हां, मेरे महबूब को सरकार होना चाहिए

नब्ज़ में थाम कर ये कह गए हैं चारागर
बस यही ईलाज है, दीदार होना चाहिए

मौसमों से क्या शिकायत, फितरतों से क्या गिला
कुदरती बदलाव है स्वीकार होना चाहिए

राख हो कर ही रहेंगी ज़िंदगी की मुश्किलें
खून तेज़ाबी, जिगर अंगार होना चाहिए

धूप में होगी ज़रूरत इसकी भी औ’ उसकी भी
पांव में जूता, सिर पे दस्तार होना चाहिए

फुरसतों की चाह में निकले दुआ दिल से यही
सात में से आठ दिन इतवार होना चाहिए

—अर्चना अर्चन

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A Warm Day

Today the sun was shining
so my neighbor washed her nightdresses in the river—
she comes home with everything folded in a basket,
beaming, as though her life had just been
lengthened a decade. Cleanliness makes her happy—
it says you can begin again,
the old mistakes needn’t hold you back.

A good neighbor—we leave each other
to our privacies. Just now
she’s singing to herself, pinning the damp wash to the line.

Little by little, days like this
will seem normal. But winter was hard:
the nights coming early, the dawns dark
with a gray, persistent rain—months of that,
and then the snow, like silence coming from the sky,
obliterating the trees and gardens.

Today, all that’s past us.
The birds are back, chattering over seeds.
All the snow’s melted; the fruit trees are covered with downy new growth.
A few couples even walk in the meadow, promising whatever they promise.

We stand in the sun and the sun heals us.
It doesn’t rush away. It hangs above us, unmoving,
like an actor pleased with his welcome.

My neighbor’s quiet a moment,
staring at the mountain, listening to the birds.

So many garments, where did they come from?
And my neighbor’s still out there,
fixing them to the line, as though the basket would never be empty—

It’s still full, nothing is finished,
though the sun’s beginning to move lower in the sky;
remember, it isn’t summer yet, only the beginning of spring;
warmth hasn’t taken hold yet, and the cold’s returning—

She feels it, as though the last bit of linen had frozen in her hands.
She looks at her hands—how old they are. It’s not the beginning, it’s the end.
And the adults, they’re all dead now.
Only the children are left, alone, growing old.

—Louise Glück

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रोटी और कविता

सँयुक्ता के लिए

जो रोटी बनाता है, कविता नहीं लिखता
जो कविता लिखता है, रोटी नहीं बनाता
दोनों का आपस में कोई रिश्ता नहीं दिखता ।

लेकिन वह क्या है
जब एक रोटी खाते हुए लगता है
कविता पढ़ रहे हैं
और कोई कविता पढ़ते हुए लगता है
रोटी खा रहे हैं ।

—मंगलेश डबराल

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परम सुख

जंगल के उस छोर पर
तुम्हारे साथ
सूखे पत्तों के बीच बैठे हुए

बासी अखबार पर
रखकर
तुम्हारे हाथों से खाई
थोड़ी सूखी हुई रोटी ने
आत्मा को जो परमसुख दिया

देह के पाए
सब चरम सुख
उसी एक पल में
आजू- बाजू बिखरे
अचरज से पलकें झपकाते हुए
सोचने लगे

हम किस गुमान पर
आज तलक इतरा रहे थे!

मैंने एक मुस्कान
उन्हें देते हुए कहा था
दिल छोटा मत करो

 तुम्हारा होना
 थोड़ा और पास करता रहा है हमें
 इसलिए
 तुम्हारा भी शुक्रिया।

—सुषमा गुप्ता

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यहाँ ठीक हूँ

जितनी देर में एक शब्द ढूँढते हो
उतनी देर में तों कपड़े पर इस्तिरी हो जाएगी
मेहनती रहे तो एक शर्ट ख़रीद हो सकते हो
बुद्धि भी रही तो कपड़े की दुकान
जिन्हें नसीब है वो तो दुनिया घूम सकते हैं

अब मैं क्या करूँ दुनिया घूमकर
शब्दों की एक बाड़ी है काँटो भरी,
फूल भी कुछ आज के कुछ पुराने
और है ही हवा, और जल, शहद, नमक
ज...ल...श...ह...द...न...म...क....।

—मनोज कुमार झा

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माँ गुजर जाने के बाद

ब्याहता बिटिया के हक में फर्क पड़ता है बहुत
छूटती मैके की सरहद माँ गुजर जाने के बाद

अब नहीं आता संदेसा मान मनुहारों भरा
खत्म रिश्तों की लगावट माँ गुजर जाने के बाद

जो कभी था मेरा आँगन, घर मेरा, कमरा मेरा
अब वहाँ अनदेखे बंधन, माँ गुजर जाने के बाद

अब तो यूँ ही तारीखों पर निभ रहे त्योहार सब
खत्म वो रस्मे रवायत, माँ गुजर जाने के बाद

आए ना माँ की रसोई की वो भीनी सी महक
उठ गया मैके का दाना, माँ गुजर जाने के बाद

वो दीवाली की सजावट, फाग के वो गीत सारे
हो गई बिसरी सी बातें, माँ गुजर जाने के बाद

—भारती पंडित

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बहाने से जीवन जीती है औरत

बहाने से जीवन जीती है औरत
थकने पर सिलाई-बुनाई का बहाना
नाज बीनने और मटर छीलने का बहाना
आँखें मूँद कुछ देर माला जपने का बहाना
रामायण और भागवत सुनने का बहाना

घूमने के लिए चलिहा* बद मन्दिर जाने का बहाना
सब्जी-भाजी, चूड़ी-बिन्दी खरीदने का बहाना
बच्चों को स्कूल ले जाने-लाने का बहाना
प्राम उठा नन्हें को घुमाने का बहाना

सोने के लिए बच्चे को सुलाने का बहाना
गाने के लिए लोरी सुनाने का बहाना
सजने के लिए पति-रिश्तेदारों का बहाना
रोने के लिए प्याज छीलने का बहाना
जीने के लिए औरों की ज़रूरतों का बहाना

अपने होने का बहाना ढूँढती है औरत
इसी तरह जीवन को जीती है औरत
बहाने से जीवन जीती है औरत…..

*चालीस दिनों तक नियमित रूप से मंदिर जाने का संकल्प

—सुमन केशरी

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कहाँ फैंकू पिता के पाँव

पिता के जूतों के नंबर से

दो नंबर कम था मेरे जूते का नंबर

सो बड़ी आसानी से मेरे पाँव 

पिता के पाँवों में आ जाते थे।


शहर की दुकानों में

ढूँढने ढकोलने के बाद भी

नहीं मिल पाते थे

पिता के नाप के जूते, बनियान और स्वेटर।


अक्सर पिता अपने पाँवों की नाप देकर

अपना जूता बनवाते थे

धीरे-धीरे भरूवा की बाज़ार में नहीं आने लगे

जूते बनाने वाले लोग

पिता पहनने लगे लखानी की हवाई चप्पल

वह भी १० नंबर से अधिक की

कम ही मिलती थी

सो धरती में आधे रगड़ खाते रहते थे

पिता के पाँव।

जूते न मिलने से पिता की पाँवों में

फटने लगती बिवाइयाँ

जिनमें पिता रेड् का तेल लगाते

और भरते रहते वैसलीन।

पिता ज़्यादातर भरूवा की बाज़ार की

पनही पहनते 

जो पिता के घर पहुँचने से पहले ही

उनके आने की आवाज़ लगा देतीं

पनहियों की बोलने की ये आवाज़

सबसे अच्छी आवाज़ों में से एक थी।


पिता हाट-बाज़ार की आवाजाही के लिए

बचाकर रखते थे एक जोड़ी जूते

पिता नहीं रहे तो बहुत दिनों तक

घर में रखे रहे पिता के जूते।


पिता की जैकेट

कुर्ते, शाल, कोट सब

बंट गये आप से आप

और जूते रह गये जस के तस 

न किसी ने उठाए, न पहने।


एक दिन माँ ने कहा

मरने वाले के जूते

नहीं पहने जाते

फेंक दो इन्हें कहीं

मैं पिता के जूते उठाये 

घूम रहा हूँ देश-देश

हार-पतार

कहाँ फैंकू पिता के पाँव।


—नरेंद्र पुंडरीक

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Banalata Sen

I have walked earth’s byways

for millennia

from Ceylon’s coast

to the archipelago of Malaya,

in the night’s darkness,

moving ever.

I have been a guest

at the now hoary court

of Vimvisar

and Asoka;

in the further dark

of the city of Vidharva.

Life’s seas foamed

all around. I was weary

And my sole respite came,

when

I spent a couple of hours

with Natore’s Banalata Sen.

Her hair dark, like some long gone

Vidisha’s night,

her face like Sravasti’s delicate

handiwork

Like some mariner,

helm lost, gone astray

in far seas,

by chance discovering

the greenness

of Spice Islands—

I saw her in the dusk.

And raising eyes, like bird’s nests,

she asked: ‘Where were you

so long?’

She asked me then

Natore’s Banalata Sen.

Evening comes at all our day’s end

like the sound of dew,

The kite wipes off sunshine’s scent

from its wings.

When all the earth’s colours are spent,

in the fireflies’ brilliant hue,

completing an unfinished tale,

an old script

finds a new arrangement.

All the birds return home,

all the rivers.

All the day’s transactions end.

Just darkness remains

and sitting with me

face to face,

Banalata Sen.

—Jibanananda Das, translated from Bangla by Ron. D.K. Banerjee; from ‘Signatures One Hundred Indian Poets’ edited by K Satchidanandan; National Book Trust, India 2000

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सईदन अम्मा

अरी ओ सईदन अम्मा

क्या ढूँढ रही है

खो गया क्या तेरा

तू क्या ढूँढ रही है

फूस के फूफा का पता

हवा की खाला का पता

बारिश की चाची का पता

पेड़ों की मासी का पता

तुझे पता हो तो बता

ढूँढ रही हूँ

वरना तू क्या पूछे 

मैं क्या ढूँढ रही हूँ

अरी ओ सईदन अम्मा

क्या ढूँढ रही है

खो गया क्या तेरा

तू क्या ढूँढ रही है

भैंस के भाई का पता

झाड़ की ताई का पता

कीकर की बाई का पता

ऊँट के नाई का पता

तुझे पता हो तो बता

ढूँढ रही हूँ

वरना तू क्या पूछे

मैं क्या ढूँढ रही हूँ

अरी ओ सईदन अम्मा

क्या ढूँढ रही है

खो गया क्या तेरा

तू क्या ढूँढ रही है

गुजरात गई बेटी

ईरान गया बेटा

बहन भाई में से

कोई भी नहीं लौटा

तो बाँस की लाठी का पता

भूख की रोटी का पता

तुझे पता हो तो बता

ढूँढ रही हूँ

वरना तू क्या पूछे

मैं क्या ढूँढ रही हूँ

— प्रभात, ‘बंजारा नमक लाया’ (गीत संकलन), २०१० लोकायत प्रकाशन 

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We Grew Up in Places That Are Gone

Why do we look

for sutures and siblings

in all the wrong places,

when Google gives us

6,35,00,00,000 results

for the word home?

—Jennifer Robertston, from ‘The Penguin Book of Indian Poets’ 2022, Penguin Random House.

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Wonder Woman

Standing at the swell of the muddy Mississippi

after the urgent care doctor had just said, Well,

sometimes shit happens, I fell fast and hard

for New Orleans all over again. Pain pills swirled

in the purse along with a spell for later. It's taken

a while for me to admit, I am in a raging battle

with my body, a spinal column thirty-five degrees

bent, vertigo that comes and goes like a DC Comics

villain nobody can kill. Invisible pain is both

a blessing and a curse. You always look so happy,

said a stranger once as I shifted to my good side

grinning. But that day, alone on the riverbank,

brass blaring from the Steamboat Natchez,

out of the corner of my eye, I saw a girl, maybe half my age,

dressed, for no apparent reason, as Wonder Woman.

She strutted by in all her strength and glory, invincible,

eternal, and when I stood to clap (because who wouldn't have),

she bowed and posed like she knew I needed a myth —

a woman, by a river, indestructible.

–Ada Limón

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To the Woman Crying Uncontrollably in the Next Stall

If you ever woke in your dress at 4am ever 

closed your legs to someone you loved opened 

them for someone you didn't moved against 

a pillow in the dark stood miserably on a beach 

seaweed clinging to your ankles paid 

good money for a bad haircut backed away 

from a mirror that wanted to kill you bled 

into the back seat for lack of a tampon 

if you swam across a river under rain sang 

using a dildo for a microphone stayed up 

to watch the moon eat the sun entire 

ripped out the stitches in your heart 

because why not if you think nothing & 

no one can / listen I love you joy is coming

-Kim Addonizio, ‘Now We’re Getting Somewhere’ 2021 W. W. Norton

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पास रह कर जुदा-सी लगती है

पास रह कर जुदा-सी लगी है

ज़िंदगी बेवफ़ा सी लगती है

मैं तुम्हारे बग़ैर भी जी लूँ

ये दुआ, बददुआ-सी लगती है

नाम उसका लिखा है आँखों में

आंसुओं की ख़ता-सी लगती है

वह अभी इस तरफ़ से गुज़रा है

ये ज़मीं आसमाँ-सी लगती है

प्यार करना भी जुर्म है शायद

मुझसे दुनिया ख़फ़ा-सी लगती है

—बशीर बद्र, ‘मैं बशीर हूँ’ २०१० वाणी प्रकाशन 

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The More-Mother (La mamadre)

My more-mother comes by 

in her wooden shoes. Last night

the wind blew from the pole, the roof tiles

broke, and walls 

and bridges fell.

The pumas of night howled all night long, 

and now, in the morning 

of icy sun, she comes, 

my more-mother, Dona 

Trinidad Marverde,

soft as the tentative freshness 

of the sun in storm country, 

a frail lamp, self-effacing, 

lighting up

to show others the way.

Dear more-mother—

I was never able 

to say stepmother!—

at this moment

my mouth trembles to define you, 

for hardly

had I begun to understand

than I saw goodness in poor dark clothes, 

a practical sanctity—

goodness of water and flour,

that's what you were. Life made you into bread, 

and there we fed on you, 

long winter to forlorn winter 

with raindrops leaking 

inside the house, 

and you,

ever present in your humility, 

sifting 

the bitter 

grain-seed of poverty 

as if you were engaged in 

sharing out

a river of diamonds.

Oh, mother, how could I 

not go on remembering you 

in every living minute?

Impossible. I carry

your Marverde in my blood,

surname

of the shared bread, 

of those gentle hands

which shaped from a flour sack 

my childhood clothes,

of the one who cooked, ironed, washed, 

planted, soothed fevers, 

and when everything was done 

and I at last was able 

to stand on my own sure feet, 

she went off, fulfilled, dark, 

off in her small coffin

Where for once she was idle

under the hard rain of Temuco.


—Pablo Neruda, The More-Mother/ La mamadre, from Where the Rain Is Born/ Donde nace la lluvia from the collection Isla Negra translated by Alastair Reid, Rupa & Co. 2005

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ख़्वाब नहीं देखा है

मैंने मुद्दत से कोई ख़्वाब नहीं देखा है

रात खिलने का गुलाबों से महक आने का

ओस की बूँदों में सूरज के समा जाने का

चाँद सी मिट्टी के ज़र्रों से सदा आने का

शहर से दूर किसी गाँव में रह जाने का

खेत खलिहानों में बागों में कहीं गाने का

सुबह घर छोड़ने का, देर से घर आने का

बहते झरनों की खनकती हुई आवाज़ों का

चहचहाती हुई चिड़ियों से लदी शाख़ों का

नरगिसी आँखों में हंसती हुई नादानी का

मुस्कुराते हुए चेहरे की ग़ज़लख़्वानी का

तेरा हो जाने तेरे प्यार में खो जाने का

तेरा कहलाने का तेरा ही नज़र आने का

मैंने मुद्दत से कोई ख़्वाब नहीं देखा है

हाथ रख दे मिरी आँखों पे कि नींद आ जाये

—वसीम बरेलवी, ‘मौसम अंदर-बाहर के’ २००८ वाणी प्रकाशन

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Those that will never come to my home

Those that will never come to my home

I shall go to meet.

A river in flood will never come to my home.

To meet a river, like people,

I shall go to the river, swim a little, and drown.

Dunes, rocks, a mountain, a pond, endless trees, fields

will never come to my home.

I shall search high and low

for dunes, mountains, rocks—like people.

People who work all the time,

I shall meet, not during my leisure hours,

but as if it was an important job.

This first wish of mine I’ll hold on to,

like the very last one.

—Vinod Kumar Shukla,

‘Jo Mere Ghar Kabhi Nahi Ayenge’: translated by, Dilip Chitre/Daniel Weissbort

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बारिश आने से पहले

बारिश आने से पहले

बारिश से बचने की तैयारी है

सारी दरारें बंद कर लीं हैं

और लीप के छत, अब छतरी भी मढ़वा ली है

खिड़की जो खुलती है बाहर

उसके ऊपर भी एक छज्जा खींच दिया है

मेन सड़क से गली में होकर, दरवाज़े तक आता रास्ता 

बजरी-मिट्टी डाल के उसको कूट रहे हैं!

यहीं कहीं कुछ गड़हों में

बारिश आती है तो पानी भर जाता है

जूते पाँव, पाएँचे सब सन जाते हैं

गले न पड़ जाये सतरंगी 

भीग न जाएँ बादल से

सावन से बच कर जीते हैं

बारिश आने से पहले 

बारिश से बचने की तैयारी जारी है!

—गुलज़ार 

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The Orange

At lunchtime I bought a huge orange—
The size of it made us all laugh.
I peeled it and shared it with Robert and Dave—
They got quarters and I had a half.

And that orange, it made me so happy,
As ordinary things often do
Just lately. The shopping. A walk in the park.
This is peace and contentment. It’s new.

The rest of the day was quite easy.
I did all the jobs on my list
And enjoyed them and had some time over.
I love you. I’m glad I exist.

— Wendy Cope

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Song

I think of your hands all those years ago
Learning to maneuver a pencil, or struggling
To fasten a coat. The hands you’d sit on in class,
The nails you chewed absently. The clumsy authority
With which they’d sail to the air when they knew
You knew the answer. I think of them lying empty
At night, of the fingers wrangling something
From your nose, or buried in the cave of your ear.
All the things they did cautiously, pointedly,
Obedient to the suddenest whim. Their shames.
How they failed. What they won’t forget year after year.
Or now. Resting on the wheel or the edge of your knee.
I am trying to decide what they feel when they wake up
And discover my body is near. Before touch.
Pushing off the ledge of the easy quiet dancing between us.

—Tracy K. Smith, from ‘Life on Mars’ published by the Graywolf Press

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