लिखना और लिखते रहना
किताबें डराने लगी हैं अब
साढ़े चार साल की उम्र में ही अक्षरों से परिचय
और उसके बाद, बाप रे…
न जाने कितने युग और कल्प बीते
सिर्फ़ छपे हुए अक्षर और अक्षर
आँखों के सामने घूर रहे हज़ारों हज़ार पन्ने
और जितना पढ़ा है—
क्या उससे ज़्यादा लिख भी डाला है?
कुछ याद नहीं कि कितने कोरे पन्ने कर चुका काले
और कितने ज़िल्दबंद हो लौट आए
की स्वाति* को दूसरी अलमारी बनवानी पड़ी।
खेल के बहाने ही लिखा गया सारा-का-सारा
कालपुरुष को कोहनी मार-मारकर लिखा है मैंने
अपने दो-तीन क़रीबी लोगों को अपने सपने बताने,
और लिखा है मैंने अपनी पीड़ा जताने
आधी-आधी रात को नींद टूट जाने पर लिखा है मैंने
मानो सिर पर भूत सवार हो।
अनगिनत लोग जब मस्ती में तिरते, हँसते और गाते डोलते रहे हैं—
तब भी लिखने की मेज़ पर ख़ुद को निचोड़ता रहा हूँ मैं
तमाम उम्र, सिगरेट के कश खींच-खींच छलनी हो गये मेरे फेफड़े
गर्दन दुखती रहती है हरदम…
बीच रास्तों से भागता रहा हूँ शब्दकोशों की ओर
देख नहीं पाया पत्नी को, तक नहीं पाया आकाश की तरफ़
इससे कहीं पाप तो नहीं हो गया।
क्या इतने सारे वर्ष व्यर्थ चले गये
क्यों डर-सा लगता है अपनी ही लिखी किताबों को देख-देख
क्यों अपना नाम सुन-सुनकर लगता है
यह कोई दूसरा आदमी है—पराया आदमी
क्यों है चारों ओर नश्वरता की ऐसी सर्द और बर्फ़ानी गंध।
-सुनील गंगोपाध्याय; बांग्ला से अनुवाद: रणजीत साहा
*कवि-पत्नी
(समकालीन भारतीय साहित्य, १६३, सितंबर-अक्तूबर २०१२)
किरदार होना चाहिए
ना कि गोया हाज़िर ए दरबार होना चाहिए
आदमी को साहिब ए किरदार होना चाहिए
थूक दें फिर चाट लें, फिर थूक कर फिर चाट लें
इस सियासी रस्म पे धिक्कार होना चाहिए
थे बहुत वादे, मगर वादों का हासिल कुछ नहीं
हां, मेरे महबूब को सरकार होना चाहिए
नब्ज़ में थाम कर ये कह गए हैं चारागर
बस यही ईलाज है, दीदार होना चाहिए
मौसमों से क्या शिकायत, फितरतों से क्या गिला
कुदरती बदलाव है स्वीकार होना चाहिए
राख हो कर ही रहेंगी ज़िंदगी की मुश्किलें
खून तेज़ाबी, जिगर अंगार होना चाहिए
धूप में होगी ज़रूरत इसकी भी औ’ उसकी भी
पांव में जूता, सिर पे दस्तार होना चाहिए
फुरसतों की चाह में निकले दुआ दिल से यही
सात में से आठ दिन इतवार होना चाहिए
—अर्चना अर्चन
A Warm Day
Today the sun was shining
so my neighbor washed her nightdresses in the river—
she comes home with everything folded in a basket,
beaming, as though her life had just been
lengthened a decade. Cleanliness makes her happy—
it says you can begin again,
the old mistakes needn’t hold you back.
A good neighbor—we leave each other
to our privacies. Just now
she’s singing to herself, pinning the damp wash to the line.
Little by little, days like this
will seem normal. But winter was hard:
the nights coming early, the dawns dark
with a gray, persistent rain—months of that,
and then the snow, like silence coming from the sky,
obliterating the trees and gardens.
Today, all that’s past us.
The birds are back, chattering over seeds.
All the snow’s melted; the fruit trees are covered with downy new growth.
A few couples even walk in the meadow, promising whatever they promise.
We stand in the sun and the sun heals us.
It doesn’t rush away. It hangs above us, unmoving,
like an actor pleased with his welcome.
My neighbor’s quiet a moment,
staring at the mountain, listening to the birds.
So many garments, where did they come from?
And my neighbor’s still out there,
fixing them to the line, as though the basket would never be empty—
It’s still full, nothing is finished,
though the sun’s beginning to move lower in the sky;
remember, it isn’t summer yet, only the beginning of spring;
warmth hasn’t taken hold yet, and the cold’s returning—
She feels it, as though the last bit of linen had frozen in her hands.
She looks at her hands—how old they are. It’s not the beginning, it’s the end.
And the adults, they’re all dead now.
Only the children are left, alone, growing old.
—Louise Glück
रोटी और कविता
सँयुक्ता के लिए
जो रोटी बनाता है, कविता नहीं लिखता
जो कविता लिखता है, रोटी नहीं बनाता
दोनों का आपस में कोई रिश्ता नहीं दिखता ।
लेकिन वह क्या है
जब एक रोटी खाते हुए लगता है
कविता पढ़ रहे हैं
और कोई कविता पढ़ते हुए लगता है
रोटी खा रहे हैं ।
—मंगलेश डबराल
परम सुख
जंगल के उस छोर पर
तुम्हारे साथ
सूखे पत्तों के बीच बैठे हुए
बासी अखबार पर
रखकर
तुम्हारे हाथों से खाई
थोड़ी सूखी हुई रोटी ने
आत्मा को जो परमसुख दिया
देह के पाए
सब चरम सुख
उसी एक पल में
आजू- बाजू बिखरे
अचरज से पलकें झपकाते हुए
सोचने लगे
हम किस गुमान पर
आज तलक इतरा रहे थे!
मैंने एक मुस्कान
उन्हें देते हुए कहा था
दिल छोटा मत करो
तुम्हारा होना
थोड़ा और पास करता रहा है हमें
इसलिए
तुम्हारा भी शुक्रिया।
—सुषमा गुप्ता
यहाँ ठीक हूँ
जितनी देर में एक शब्द ढूँढते हो
उतनी देर में तों कपड़े पर इस्तिरी हो जाएगी
मेहनती रहे तो एक शर्ट ख़रीद हो सकते हो
बुद्धि भी रही तो कपड़े की दुकान
जिन्हें नसीब है वो तो दुनिया घूम सकते हैं
अब मैं क्या करूँ दुनिया घूमकर
शब्दों की एक बाड़ी है काँटो भरी,
फूल भी कुछ आज के कुछ पुराने
और है ही हवा, और जल, शहद, नमक
ज...ल...श...ह...द...न...म...क....।
—मनोज कुमार झा
माँ गुजर जाने के बाद
ब्याहता बिटिया के हक में फर्क पड़ता है बहुत
छूटती मैके की सरहद माँ गुजर जाने के बाद
अब नहीं आता संदेसा मान मनुहारों भरा
खत्म रिश्तों की लगावट माँ गुजर जाने के बाद
जो कभी था मेरा आँगन, घर मेरा, कमरा मेरा
अब वहाँ अनदेखे बंधन, माँ गुजर जाने के बाद
अब तो यूँ ही तारीखों पर निभ रहे त्योहार सब
खत्म वो रस्मे रवायत, माँ गुजर जाने के बाद
आए ना माँ की रसोई की वो भीनी सी महक
उठ गया मैके का दाना, माँ गुजर जाने के बाद
वो दीवाली की सजावट, फाग के वो गीत सारे
हो गई बिसरी सी बातें, माँ गुजर जाने के बाद
—भारती पंडित
बहाने से जीवन जीती है औरत
बहाने से जीवन जीती है औरत
थकने पर सिलाई-बुनाई का बहाना
नाज बीनने और मटर छीलने का बहाना
आँखें मूँद कुछ देर माला जपने का बहाना
रामायण और भागवत सुनने का बहाना
घूमने के लिए चलिहा* बद मन्दिर जाने का बहाना
सब्जी-भाजी, चूड़ी-बिन्दी खरीदने का बहाना
बच्चों को स्कूल ले जाने-लाने का बहाना
प्राम उठा नन्हें को घुमाने का बहाना
सोने के लिए बच्चे को सुलाने का बहाना
गाने के लिए लोरी सुनाने का बहाना
सजने के लिए पति-रिश्तेदारों का बहाना
रोने के लिए प्याज छीलने का बहाना
जीने के लिए औरों की ज़रूरतों का बहाना
अपने होने का बहाना ढूँढती है औरत
इसी तरह जीवन को जीती है औरत
बहाने से जीवन जीती है औरत…..
*चालीस दिनों तक नियमित रूप से मंदिर जाने का संकल्प
—सुमन केशरी
Diaphragm
My surgeon friend, her hands so still
is showing me a sponge—
this is your diaphragm. It pulls air in.
When you’re young, when you’re drunk,
when you see the moon in the pines,
you pull in.
When you speak, when you lie,
when you say you don’t know,
you push out.
When you’re tired, when you’re shocked,
when someone you love is dying,
you pull in.
When you see the sun rising at the end of the street
in the tired morning, and end another vigil,
you push out.
When you’re standing on the street, waiting for the light,
and the one you’re with says, ‘We should get married,’
you pull in.
When you’re watching a man in a tie hold back his smile,
as he sells his juvenile people a war,
you push out.
When you’re watching your child kicking a ball—
he falls to the ground and lies very still,
then you imagine he has gone to that war.
you pull in.
When you are old, and your child is checking
his phone by your hospital bed,
and you push out, you pull in, you push out, you pull in,
you pull in, you pull in, you pull in
and then our old friend with his very still hands
reaches in and holds your diaphragm down,
calming it like you hold a pet down
so that you don’t bother the air anymore.
—Satyajit Sarna, from ‘The Penguin Book of Indian Poets’ Penguin Random House India 2022
कहाँ फैंकू पिता के पाँव
पिता के जूतों के नंबर से
दो नंबर कम था मेरे जूते का नंबर
सो बड़ी आसानी से मेरे पाँव
पिता के पाँवों में आ जाते थे।
शहर की दुकानों में
ढूँढने ढकोलने के बाद भी
नहीं मिल पाते थे
पिता के नाप के जूते, बनियान और स्वेटर।
अक्सर पिता अपने पाँवों की नाप देकर
अपना जूता बनवाते थे
धीरे-धीरे भरूवा की बाज़ार में नहीं आने लगे
जूते बनाने वाले लोग
पिता पहनने लगे लखानी की हवाई चप्पल
वह भी १० नंबर से अधिक की
कम ही मिलती थी
सो धरती में आधे रगड़ खाते रहते थे
पिता के पाँव।
जूते न मिलने से पिता की पाँवों में
फटने लगती बिवाइयाँ
जिनमें पिता रेड् का तेल लगाते
और भरते रहते वैसलीन।
पिता ज़्यादातर भरूवा की बाज़ार की
पनही पहनते
जो पिता के घर पहुँचने से पहले ही
उनके आने की आवाज़ लगा देतीं
पनहियों की बोलने की ये आवाज़
सबसे अच्छी आवाज़ों में से एक थी।
पिता हाट-बाज़ार की आवाजाही के लिए
बचाकर रखते थे एक जोड़ी जूते
पिता नहीं रहे तो बहुत दिनों तक
घर में रखे रहे पिता के जूते।
पिता की जैकेट
कुर्ते, शाल, कोट सब
बंट गये आप से आप
और जूते रह गये जस के तस
न किसी ने उठाए, न पहने।
एक दिन माँ ने कहा
मरने वाले के जूते
नहीं पहने जाते
फेंक दो इन्हें कहीं
मैं पिता के जूते उठाये
घूम रहा हूँ देश-देश
हार-पतार
कहाँ फैंकू पिता के पाँव।
—नरेंद्र पुंडरीक
Banalata Sen
I have walked earth’s byways
for millennia
from Ceylon’s coast
to the archipelago of Malaya,
in the night’s darkness,
moving ever.
I have been a guest
at the now hoary court
of Vimvisar
and Asoka;
in the further dark
of the city of Vidharva.
Life’s seas foamed
all around. I was weary
And my sole respite came,
when
I spent a couple of hours
with Natore’s Banalata Sen.
Her hair dark, like some long gone
Vidisha’s night,
her face like Sravasti’s delicate
handiwork
Like some mariner,
helm lost, gone astray
in far seas,
by chance discovering
the greenness
of Spice Islands—
I saw her in the dusk.
And raising eyes, like bird’s nests,
she asked: ‘Where were you
so long?’
She asked me then
Natore’s Banalata Sen.
Evening comes at all our day’s end
like the sound of dew,
The kite wipes off sunshine’s scent
from its wings.
When all the earth’s colours are spent,
in the fireflies’ brilliant hue,
completing an unfinished tale,
an old script
finds a new arrangement.
All the birds return home,
all the rivers.
All the day’s transactions end.
Just darkness remains
and sitting with me
face to face,
Banalata Sen.
—Jibanananda Das, translated from Bangla by Ron. D.K. Banerjee; from ‘Signatures One Hundred Indian Poets’ edited by K Satchidanandan; National Book Trust, India 2000
सईदन अम्मा
अरी ओ सईदन अम्मा
क्या ढूँढ रही है
खो गया क्या तेरा
तू क्या ढूँढ रही है
फूस के फूफा का पता
हवा की खाला का पता
बारिश की चाची का पता
पेड़ों की मासी का पता
तुझे पता हो तो बता
ढूँढ रही हूँ
वरना तू क्या पूछे
मैं क्या ढूँढ रही हूँ
अरी ओ सईदन अम्मा
क्या ढूँढ रही है
खो गया क्या तेरा
तू क्या ढूँढ रही है
भैंस के भाई का पता
झाड़ की ताई का पता
कीकर की बाई का पता
ऊँट के नाई का पता
तुझे पता हो तो बता
ढूँढ रही हूँ
वरना तू क्या पूछे
मैं क्या ढूँढ रही हूँ
अरी ओ सईदन अम्मा
क्या ढूँढ रही है
खो गया क्या तेरा
तू क्या ढूँढ रही है
गुजरात गई बेटी
ईरान गया बेटा
बहन भाई में से
कोई भी नहीं लौटा
तो बाँस की लाठी का पता
भूख की रोटी का पता
तुझे पता हो तो बता
ढूँढ रही हूँ
वरना तू क्या पूछे
मैं क्या ढूँढ रही हूँ
— प्रभात, ‘बंजारा नमक लाया’ (गीत संकलन), २०१० लोकायत प्रकाशन
We Grew Up in Places That Are Gone
Why do we look
for sutures and siblings
in all the wrong places,
when Google gives us
6,35,00,00,000 results
for the word home?
—Jennifer Robertston, from ‘The Penguin Book of Indian Poets’ 2022, Penguin Random House.
आँख को जाम लिखो ज़ुल्फ़ को बरसात लिखो
आँख को जाम लिखो ज़ुल्फ़ को बरसात लिखो
जिससे नाराज़ हो उस शख़्स की हर बात लिखो
जिससे मिलकर भी न मिलने की कसक बाक़ी है
उसी अनजान शनासा की मुलाक़ात लिखो
जिस्म मस्जिद की तरह, आँखें नमाज़ों जैसी
जब गुनाहों में इबादत थी वो दिन-रात लिखो
इस कहानी का तो अंजाम वही है कि जो था
तुम जो चाहो तो मोहब्बत की शुरुआत लिखो
जब भी देखो उसे अपनी ही नज़र से देखो
कोई कुछ भी कहे तुम अपने ख़यालात लिखो
— निदा फ़ाज़ली, ‘मौसम आते जाते हैं’ २००८, डायमंड पॉकेट बुक्स
Wonder Woman
Standing at the swell of the muddy Mississippi
after the urgent care doctor had just said, Well,
sometimes shit happens, I fell fast and hard
for New Orleans all over again. Pain pills swirled
in the purse along with a spell for later. It's taken
a while for me to admit, I am in a raging battle
with my body, a spinal column thirty-five degrees
bent, vertigo that comes and goes like a DC Comics
villain nobody can kill. Invisible pain is both
a blessing and a curse. You always look so happy,
said a stranger once as I shifted to my good side
grinning. But that day, alone on the riverbank,
brass blaring from the Steamboat Natchez,
out of the corner of my eye, I saw a girl, maybe half my age,
dressed, for no apparent reason, as Wonder Woman.
She strutted by in all her strength and glory, invincible,
eternal, and when I stood to clap (because who wouldn't have),
she bowed and posed like she knew I needed a myth —
a woman, by a river, indestructible.
–Ada Limón
बहुत दिनों के बाद
बहुत दिनों के बाद
अबकी मैंने जी भर देखी
पकी-सुनहली फसलों की मुस्कान
—बहुत दिनों के बाद
बहुत दिनों के बाद
अबकी मैं जी भर सुन पाया
धान कूटती किशोरियों की कोकिल-कंठी तान
—बहुत दिनों के बाद
बहुत दिनों के बाद
अबकी मैंने जी-भर सूंघे
मौलसिरी के ढेर-ढेर-से ताज़े-टटके फूल
—बहुत दिनों के बाद
बहुत दिनों के बाद
अबकी मैं जी-भर छू पाया
अपनी गँवई पगडण्डी की चन्दनवर्णी धूल
—बहुत दिनों के बाद
बहुत दिनों के बाद
अबकी मैंने तालमखाना खाया
गन्ने चूसे जी-भर
—बहुत दिनों के बाद
बहुत दिनों के बाद
अबकी मैंने जी-भर भोगे
गन्ध-रूप-रस-शब्द-स्पर्श सब
साथ-साथ इस भू पर
—बहुत दिनों के बाद
—नागार्जुन, गीत संकलन ‘पाँच जोड़ बांसुरी,’ चंद्रदेव सिंह द्वारा संपादित, २००३ भारतीय ज्ञानपीठ
To the Woman Crying Uncontrollably in the Next Stall
If you ever woke in your dress at 4am ever
closed your legs to someone you loved opened
them for someone you didn't moved against
a pillow in the dark stood miserably on a beach
seaweed clinging to your ankles paid
good money for a bad haircut backed away
from a mirror that wanted to kill you bled
into the back seat for lack of a tampon
if you swam across a river under rain sang
using a dildo for a microphone stayed up
to watch the moon eat the sun entire
ripped out the stitches in your heart
because why not if you think nothing &
no one can / listen I love you joy is coming
-Kim Addonizio, ‘Now We’re Getting Somewhere’ 2021 W. W. Norton
पास रह कर जुदा-सी लगती है
पास रह कर जुदा-सी लगी है
ज़िंदगी बेवफ़ा सी लगती है
मैं तुम्हारे बग़ैर भी जी लूँ
ये दुआ, बददुआ-सी लगती है
नाम उसका लिखा है आँखों में
आंसुओं की ख़ता-सी लगती है
वह अभी इस तरफ़ से गुज़रा है
ये ज़मीं आसमाँ-सी लगती है
प्यार करना भी जुर्म है शायद
मुझसे दुनिया ख़फ़ा-सी लगती है
—बशीर बद्र, ‘मैं बशीर हूँ’ २०१० वाणी प्रकाशन
The More-Mother (La mamadre)
My more-mother comes by
in her wooden shoes. Last night
the wind blew from the pole, the roof tiles
broke, and walls
and bridges fell.
The pumas of night howled all night long,
and now, in the morning
of icy sun, she comes,
my more-mother, Dona
Trinidad Marverde,
soft as the tentative freshness
of the sun in storm country,
a frail lamp, self-effacing,
lighting up
to show others the way.
Dear more-mother—
I was never able
to say stepmother!—
at this moment
my mouth trembles to define you,
for hardly
had I begun to understand
than I saw goodness in poor dark clothes,
a practical sanctity—
goodness of water and flour,
that's what you were. Life made you into bread,
and there we fed on you,
long winter to forlorn winter
with raindrops leaking
inside the house,
and you,
ever present in your humility,
sifting
the bitter
grain-seed of poverty
as if you were engaged in
sharing out
a river of diamonds.
Oh, mother, how could I
not go on remembering you
in every living minute?
Impossible. I carry
your Marverde in my blood,
surname
of the shared bread,
of those gentle hands
which shaped from a flour sack
my childhood clothes,
of the one who cooked, ironed, washed,
planted, soothed fevers,
and when everything was done
and I at last was able
to stand on my own sure feet,
she went off, fulfilled, dark,
off in her small coffin
Where for once she was idle
under the hard rain of Temuco.
—Pablo Neruda, The More-Mother/ La mamadre, from Where the Rain Is Born/ Donde nace la lluvia from the collection Isla Negra translated by Alastair Reid, Rupa & Co. 2005
ख़्वाब नहीं देखा है
मैंने मुद्दत से कोई ख़्वाब नहीं देखा है
रात खिलने का गुलाबों से महक आने का
ओस की बूँदों में सूरज के समा जाने का
चाँद सी मिट्टी के ज़र्रों से सदा आने का
शहर से दूर किसी गाँव में रह जाने का
खेत खलिहानों में बागों में कहीं गाने का
सुबह घर छोड़ने का, देर से घर आने का
बहते झरनों की खनकती हुई आवाज़ों का
चहचहाती हुई चिड़ियों से लदी शाख़ों का
नरगिसी आँखों में हंसती हुई नादानी का
मुस्कुराते हुए चेहरे की ग़ज़लख़्वानी का
तेरा हो जाने तेरे प्यार में खो जाने का
तेरा कहलाने का तेरा ही नज़र आने का
मैंने मुद्दत से कोई ख़्वाब नहीं देखा है
हाथ रख दे मिरी आँखों पे कि नींद आ जाये
—वसीम बरेलवी, ‘मौसम अंदर-बाहर के’ २००८ वाणी प्रकाशन