कहाँ फैंकू पिता के पाँव

पिता के जूतों के नंबर से

दो नंबर कम था मेरे जूते का नंबर

सो बड़ी आसानी से मेरे पाँव 

पिता के पाँवों में आ जाते थे।


शहर की दुकानों में

ढूँढने ढकोलने के बाद भी

नहीं मिल पाते थे

पिता के नाप के जूते, बनियान और स्वेटर।


अक्सर पिता अपने पाँवों की नाप देकर

अपना जूता बनवाते थे

धीरे-धीरे भरूवा की बाज़ार में नहीं आने लगे

जूते बनाने वाले लोग

पिता पहनने लगे लखानी की हवाई चप्पल

वह भी १० नंबर से अधिक की

कम ही मिलती थी

सो धरती में आधे रगड़ खाते रहते थे

पिता के पाँव।

जूते न मिलने से पिता की पाँवों में

फटने लगती बिवाइयाँ

जिनमें पिता रेड् का तेल लगाते

और भरते रहते वैसलीन।

पिता ज़्यादातर भरूवा की बाज़ार की

पनही पहनते 

जो पिता के घर पहुँचने से पहले ही

उनके आने की आवाज़ लगा देतीं

पनहियों की बोलने की ये आवाज़

सबसे अच्छी आवाज़ों में से एक थी।


पिता हाट-बाज़ार की आवाजाही के लिए

बचाकर रखते थे एक जोड़ी जूते

पिता नहीं रहे तो बहुत दिनों तक

घर में रखे रहे पिता के जूते।


पिता की जैकेट

कुर्ते, शाल, कोट सब

बंट गये आप से आप

और जूते रह गये जस के तस 

न किसी ने उठाए, न पहने।


एक दिन माँ ने कहा

मरने वाले के जूते

नहीं पहने जाते

फेंक दो इन्हें कहीं

मैं पिता के जूते उठाये 

घूम रहा हूँ देश-देश

हार-पतार

कहाँ फैंकू पिता के पाँव।


—नरेंद्र पुंडरीक

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