Poetry Alok Saini Poetry Alok Saini

कहाँ फैंकू पिता के पाँव

पिता के जूतों के नंबर से

दो नंबर कम था मेरे जूते का नंबर

सो बड़ी आसानी से मेरे पाँव 

पिता के पाँवों में आ जाते थे।


शहर की दुकानों में

ढूँढने ढकोलने के बाद भी

नहीं मिल पाते थे

पिता के नाप के जूते, बनियान और स्वेटर।


अक्सर पिता अपने पाँवों की नाप देकर

अपना जूता बनवाते थे

धीरे-धीरे भरूवा की बाज़ार में नहीं आने लगे

जूते बनाने वाले लोग

पिता पहनने लगे लखानी की हवाई चप्पल

वह भी १० नंबर से अधिक की

कम ही मिलती थी

सो धरती में आधे रगड़ खाते रहते थे

पिता के पाँव।

जूते न मिलने से पिता की पाँवों में

फटने लगती बिवाइयाँ

जिनमें पिता रेड् का तेल लगाते

और भरते रहते वैसलीन।

पिता ज़्यादातर भरूवा की बाज़ार की

पनही पहनते 

जो पिता के घर पहुँचने से पहले ही

उनके आने की आवाज़ लगा देतीं

पनहियों की बोलने की ये आवाज़

सबसे अच्छी आवाज़ों में से एक थी।


पिता हाट-बाज़ार की आवाजाही के लिए

बचाकर रखते थे एक जोड़ी जूते

पिता नहीं रहे तो बहुत दिनों तक

घर में रखे रहे पिता के जूते।


पिता की जैकेट

कुर्ते, शाल, कोट सब

बंट गये आप से आप

और जूते रह गये जस के तस 

न किसी ने उठाए, न पहने।


एक दिन माँ ने कहा

मरने वाले के जूते

नहीं पहने जाते

फेंक दो इन्हें कहीं

मैं पिता के जूते उठाये 

घूम रहा हूँ देश-देश

हार-पतार

कहाँ फैंकू पिता के पाँव।


—नरेंद्र पुंडरीक

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चीनी चाय पीते हुए

चाय पीते हुए

मैं अपने पिता के बारे में सोच रहा हूँ।

आपने कभी

चाय पीते हुए

पिता के बारे में सोचा है?

अच्छी बात नहीं है

पिताओं के बारे में सोचना।

अपनी कलई खुल जाती है।

हम कुछ दूसरे हो सकते थे।

पर सोच की कठिनाई यह है कि दिखा देता है

कि हम कुछ दूसरे हुए होते 

तो पिता के अधिक निकट हुए होते

अधिक उन जैसे हुए होते।

कितनी दूर जाना होता है पिता से 

पिता जैसा होने के लिए।

पिता भी

सवेरे चाय पीते थे।

क्या वह भी 

पिता के बारे में सोचते थे-

निकट या दूर?

—अज्ञेय, ‘संकल्प कविता-दशक’ हिंदी अकादमी, दिल्ली

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मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ, वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूँ 

मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ

वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूँ 

एक जंगल है तेरी आँखों में

मैं जहाँ राह भूल जाता हूँ 

तू किसी रेल-सी गुज़रती है

मैं किसी पुल-सा थरथराता हूँ 

हर तरफ़ ऐतराज़ होता है

मैं अगर रौशनी में आता हूँ 

एक बाज़ू उखड़ गया जबसे

और ज़्यादा वज़न उठाता हूँ 

मैं तुझे भूलने की कोशिश में

आज कितने क़रीब पाता हूँ 

कौन ये फ़ासला निभाएगा

मैं फ़रिश्ता हूँ सच बताता हूँ

—दुष्यंत कुमार, ‘साये में धूप’

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ट्राम में एक याद

चेतना पारीक, कैसी हो? 

पहले जैसी हो? 

कुछ-कुछ ख़ुश 

कुछ-कुछ उदास 

कभी देखती तारे 

कभी देखती घास 

चेतना पारीक, कैसी दिखती हो? 

अब भी कविता लिखती हो? 

तुम्हें मेरी याद न होगी 

लेकिन मुझे तुम नहीं भूली हो 

चलती ट्राम में फिर आँखों के आगे झूली हो 

तुम्हारी क़द-काठी की एक 

नन्ही-सी, नेक 

सामने आ खड़ी है 

तुम्हारी याद उमड़ी है

चेतना पारीक, कैसी हो? 

पहले जैसी हो? 

आँखों में उतरती है किताब की आग? 

नाटक में अब भी लेती हो भाग? 

छूटे नहीं हैं लाइब्रेरी के चक्कर? 

मुझ-से घुमंतू कवि से होती है कभी टक्कर? 

अब भी गाती हो गीत, बनाती हो चित्र? 

अब भी तुम्हारे हैं बहुत-बहुत मित्र? 

अब भी बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती हो? 

अब भी जिससे करती हो प्रेम, उसे दाढ़ी रखाती हो? 

चेतना पारीक, अब भी तुम नन्ही गेंद-सी उल्लास से भरी हो? 

उतनी ही हरी हो? 

उतना ही शोर है इस शहर में वैसा ही ट्रैफ़िक जाम है 

भीड़-भाड़ धक्का-मुक्का ठेल-पेल ताम-झाम है 

ट्यूब-रेल बन रही चल रही ट्राम है 

विकल है कलकत्ता दौड़ता अनवरत अविराम है 

इस महावन में फिर भी एक गौरैए की जगह ख़ाली है 

एक छोटी चिड़िया से एक नन्ही पत्ती से सूनी डाली है 

महानगर के महाट्टहास में एक हँसी कम है 

विराट धक्-धक् में एक धड़कन कम है 

कोरस में एक कंठ कम है 

तुम्हारे दो तलवे जितनी जगह लेते हैं उतनी जगह ख़ाली है 

वहाँ उगी है घास वहाँ चुई है ओस वहाँ किसी ने निगाह तक नहीं डाली है 

फिर आया हूँ इस नगर में चश्मा पोंछ-पोंछ देखता हूँ 

आदमियों को किताबों को निरखता लेखता हूँ 

रंग-बिरंगी बस-ट्राम रंग-बिरंगे लोग 

रोग-शोक हँसी-ख़ुशी योग और वियोग 

देखता हूँ अबके शहर में भीड़ दूनी है 

देखता हूँ तुम्हारे आकार के बराबर जगह सूनी है 

चेतना पारीक, कहाँ हो कैसी हो? 

बोलो, बोलो, पहले जैसी हो !

—ज्ञानेंद्रपति

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ग़ौर से देखो

अच्छे दिन इतने अच्छे नहीं होते

कि हम उन्हें तमग़े की तरह

टाँक लें ज़िंदगी की क़मीज़ पर।

बुरे दिन इतने बुरे भी नहीं होते

कि हम उन्हें पोटली में बाँध

पिछवाड़े गाड़ दें या

फेंक दें किसी अंधे कुएँ में।

अच्छे दिन मसखरे नहीं होते

की हंसें तो हम हंसते चले जाएँ।

हंसें इस क़दर कि पेट में

बल पड़ जाए उम्र भर के लिए।

बुरे दिन इतने बुरे भी नहीं होते

कि हम रोयें तो रोते चले जाएँ

और हिमनद बन जाएँ हमारी आँखें।

परसपर गुँधे हुए आते हैं 

अच्छे दिन और बुरे दिन

केकुले के बेंज़ीन के फ़ार्मूले की तरह।

ग़ौर से देखो

अच्छे और बुरे दिनों के चेहरे

अच्छे दिनों की नीली आँखों की कोर में

अटका हुआ है आँसू

और बुरे दिनों के स्याह होंठों पर चिपकी है

नन्ही-सी मुस्कान।

—सुधीर सक्सेना 

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जो तू हँसी है तो हर इक अधर पे रहना सीख

जो तू हँसी है तो हर इक अधर पे रहना सीख

अगर है अश्क़ तो औरों के ग़म में बहना सीख

अगर है हादिसा तो दिल से दूर-दूर ही रह

अगर है दिल तो सभी हादिसों को सहना सीख

अगर तू कान है तो झूठ के क़रीब न आ

अगर तू होंठ है तो सच बात को ही कहना सीख

अगर तू फूल है तो खिल सभी के आँगन में

अगर तू जुल्म की दीवार है तो ढहना सीख

अहम् नहीं है तो आ तू ‘कुँवर’ के साथ में चल

अहम् अगर है तो फिर अपने घर में रहना सीख

—कुँवर बेचैन, ‘आँधियों धीरे चलो’ वाणी प्रकाशन

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प्रेम में इतना भर ही रुके रास्ता

कि ज़रा लम्बी राह लेकर 

सर झटक कर, निकला जा सके काम पर।

मन टूटे तो टूटे, देह न टूटे

कि निपटाएँ जा सकें 

भीतर बाहर के सारे काम।

इतनी भर जगे आँच

कि छाती में दबी अगन

चूल्हे में धधकती रहे

उतरती रहे सौंधी रोटियाँ

छुटकी की दाल भात की कटोरी ख़ाली न रहे।

इतने भर ही बहें आंसू

की लोग एक़बार में ही यक़ीन कर लें

आँख में तिनके की गिरने जैसे अटपटे झूठ का।

इतनी ही पीड़ाएँ झोली में डालना ईश्वर!

कि बच्चे भूके रहें, न पति अतृप्त!

सिरहाने कोई किताब रहे

कोई पुकारे तो 

चेहरा ढकने की सहूलत रहे।

बस इतनी भर छूट दे प्रेम 

कि जोग बिजोग की बातें

जीवन में न उतर आएँ।

गंगा बहती रहे

घर-संसार चलता रहे।


— सपना भट्ट, ‘प्रेम में इतना भर ही रुके रास्ता’

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