ग़ौर से देखो

अच्छे दिन इतने अच्छे नहीं होते

कि हम उन्हें तमग़े की तरह

टाँक लें ज़िंदगी की क़मीज़ पर।

बुरे दिन इतने बुरे भी नहीं होते

कि हम उन्हें पोटली में बाँध

पिछवाड़े गाड़ दें या

फेंक दें किसी अंधे कुएँ में।

अच्छे दिन मसखरे नहीं होते

की हंसें तो हम हंसते चले जाएँ।

हंसें इस क़दर कि पेट में

बल पड़ जाए उम्र भर के लिए।

बुरे दिन इतने बुरे भी नहीं होते

कि हम रोयें तो रोते चले जाएँ

और हिमनद बन जाएँ हमारी आँखें।

परसपर गुँधे हुए आते हैं 

अच्छे दिन और बुरे दिन

केकुले के बेंज़ीन के फ़ार्मूले की तरह।

ग़ौर से देखो

अच्छे और बुरे दिनों के चेहरे

अच्छे दिनों की नीली आँखों की कोर में

अटका हुआ है आँसू

और बुरे दिनों के स्याह होंठों पर चिपकी है

नन्ही-सी मुस्कान।

—सुधीर सक्सेना 

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