Poetry Alok Saini Poetry Alok Saini

ट्राम में एक याद

चेतना पारीक, कैसी हो? 

पहले जैसी हो? 

कुछ-कुछ ख़ुश 

कुछ-कुछ उदास 

कभी देखती तारे 

कभी देखती घास 

चेतना पारीक, कैसी दिखती हो? 

अब भी कविता लिखती हो? 

तुम्हें मेरी याद न होगी 

लेकिन मुझे तुम नहीं भूली हो 

चलती ट्राम में फिर आँखों के आगे झूली हो 

तुम्हारी क़द-काठी की एक 

नन्ही-सी, नेक 

सामने आ खड़ी है 

तुम्हारी याद उमड़ी है

चेतना पारीक, कैसी हो? 

पहले जैसी हो? 

आँखों में उतरती है किताब की आग? 

नाटक में अब भी लेती हो भाग? 

छूटे नहीं हैं लाइब्रेरी के चक्कर? 

मुझ-से घुमंतू कवि से होती है कभी टक्कर? 

अब भी गाती हो गीत, बनाती हो चित्र? 

अब भी तुम्हारे हैं बहुत-बहुत मित्र? 

अब भी बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती हो? 

अब भी जिससे करती हो प्रेम, उसे दाढ़ी रखाती हो? 

चेतना पारीक, अब भी तुम नन्ही गेंद-सी उल्लास से भरी हो? 

उतनी ही हरी हो? 

उतना ही शोर है इस शहर में वैसा ही ट्रैफ़िक जाम है 

भीड़-भाड़ धक्का-मुक्का ठेल-पेल ताम-झाम है 

ट्यूब-रेल बन रही चल रही ट्राम है 

विकल है कलकत्ता दौड़ता अनवरत अविराम है 

इस महावन में फिर भी एक गौरैए की जगह ख़ाली है 

एक छोटी चिड़िया से एक नन्ही पत्ती से सूनी डाली है 

महानगर के महाट्टहास में एक हँसी कम है 

विराट धक्-धक् में एक धड़कन कम है 

कोरस में एक कंठ कम है 

तुम्हारे दो तलवे जितनी जगह लेते हैं उतनी जगह ख़ाली है 

वहाँ उगी है घास वहाँ चुई है ओस वहाँ किसी ने निगाह तक नहीं डाली है 

फिर आया हूँ इस नगर में चश्मा पोंछ-पोंछ देखता हूँ 

आदमियों को किताबों को निरखता लेखता हूँ 

रंग-बिरंगी बस-ट्राम रंग-बिरंगे लोग 

रोग-शोक हँसी-ख़ुशी योग और वियोग 

देखता हूँ अबके शहर में भीड़ दूनी है 

देखता हूँ तुम्हारे आकार के बराबर जगह सूनी है 

चेतना पारीक, कहाँ हो कैसी हो? 

बोलो, बोलो, पहले जैसी हो !

—ज्ञानेंद्रपति

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What You Missed That Day You Were Absent from Fourth Grade

Mrs. Nelson explained how to stand still and listen
to the wind, how to find meaning in pumping gas,
how peeling potatoes can be a form of prayer. She took
questions on how not to feel lost in the dark.
After lunch she distributed worksheets
that covered ways to remember your grandfather’s
voice. Then the class discussed falling asleep
without feeling you had forgotten to do something else—
something important—and how to believe
the house you wake in is your home. This prompted
Mrs. Nelson to draw a chalkboard diagram detailing
how to chant the Psalms during cigarette breaks,
and how not to squirm for sound when your own thoughts
are all you hear; also, that you have enough.
The English lesson was that I am
is a complete sentence.
And just before the afternoon bell, she made the math equation
look easy. The one that proves that hundreds of questions,
and feeling cold, and all those nights spent looking
for whatever it was you lost, and one person
add up to something.

—Brad Aaron Modlin, ‘Everyone at This Party Has Two Names’ by Southeast Missouri State University Press

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ग़ौर से देखो

अच्छे दिन इतने अच्छे नहीं होते

कि हम उन्हें तमग़े की तरह

टाँक लें ज़िंदगी की क़मीज़ पर।

बुरे दिन इतने बुरे भी नहीं होते

कि हम उन्हें पोटली में बाँध

पिछवाड़े गाड़ दें या

फेंक दें किसी अंधे कुएँ में।

अच्छे दिन मसखरे नहीं होते

की हंसें तो हम हंसते चले जाएँ।

हंसें इस क़दर कि पेट में

बल पड़ जाए उम्र भर के लिए।

बुरे दिन इतने बुरे भी नहीं होते

कि हम रोयें तो रोते चले जाएँ

और हिमनद बन जाएँ हमारी आँखें।

परसपर गुँधे हुए आते हैं 

अच्छे दिन और बुरे दिन

केकुले के बेंज़ीन के फ़ार्मूले की तरह।

ग़ौर से देखो

अच्छे और बुरे दिनों के चेहरे

अच्छे दिनों की नीली आँखों की कोर में

अटका हुआ है आँसू

और बुरे दिनों के स्याह होंठों पर चिपकी है

नन्ही-सी मुस्कान।

—सुधीर सक्सेना 

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CAVED—7.8 Billion

1.
This one looks like a planet of red windmills whirring
or a field of poppies, a wild corona of a star, heart of sunflower,
this pretty thing is fanged, arsenal in Death’s stockpile,
small unseen things are perfectly precise,
Hanuman burnt the city of Lanka thus, eroding pride.
2.

The bush is bursting with red berries,
spring has slipped through the crevices breathing green on the city,
a musician plays his oud to the sky in himself,
the trees are gravestones to the forgotten dead,
the deer conglomerate driven to community,
more families staked by windows notice the heartbeat of nature.

3.
The camera has vertigo, it’s crazy arc
leering on the hoarded splendor of one family,
(what madness was this to record and pridefully share?)
lines of bottles on the kitchen cabinetry
riddled with oil of bright urine hue,
toilet roles, bounties, tissues, food cans,
a pantry full of debris for doomsday,
this raid of the innards of stores,
this back-to-basics, to Freud’s Id of fear and self-first.

4.
Where do we send our unclaimed sorrow?
The unlabeled debris of life?
The racking cough of unprocessed wounds?
There is no island to send them off, be done, be free.
Like those lines of caskets in dirt in Hart island,
where New York City is belching unclaimed bodies
its gut overflowing.

5.
The mind is like an abacus now
computing deaths on the excel sheet
of consciousness; from the Spanish flu 20-50 million,
from the Black plague 50 million, from COVID… 
what black hole continues to gorge up souls
or is it an empyrean of hopeful light,
what joust happens in the universe’s annals
between what forces, this unending play
into and out of life, where is that mighty
being who once gave the song of life
to a tremulous warrior’s heart in the middle of battle?
Each of us is a naive question as we have always been
curved like an embryo, full-stopped by death.

— Usha Akella, from ‘Singing In The Dark - a global anthology of poetry under lockdown’ published by Penguin Vintage

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आज फिर शुरू हुआ

आज फिर शुरू हुआ जीवन

आज मैंने एक छोटी-सी सरल-सी कविता पढ़ी

आज मैंने सूरज को डूबते दूर तक देखा

जी भर आज मैंने शीतल जल से स्नान किया

आज एक छोटी-सी बच्ची आयी, किलक मेरे कंधे चढ़ी

आज मैंने आदि से अंत तक एक पूरा गान किया 

आज फिर जीवन शुरू हुआ 

-रघुवीर सहाय, ‘प्रतिनिधि कविताएँ’ राजकमल पेपरबेक्स

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Panipat

My aunts sit in the courtyard,

Gossiping, shelling peas,

While around them parrots

Cackle in the neem trees.

I sit with my flute near the place

Where the well was covered up

To make a septic tank

I glide from stop to stop

Following the scale of Lalit

Though it is afternoon;

It’s mournful meditative

Mood moves into a tune

Leading me God knows where —

Into a universe

Beyond — beyond Panipat!

Well, I could have done worse

Than break my studies and come

Back home from Inglistan.

Punjab, pandits, panir

Panipat and paan,

Family, music, faces,

Food, land, everything

Drew me back, yet now

To hear the koyal sing

Brings notes of other birds,

The nightingale, the wren,

The blackbird; and my heart’s

Barometer turns down.

I think of beeches, elms,

And stare at the neem tree.

My cousin slices a mango

And offers it to me.

I choose the slice with the seed

And learn from the sweet taste,

Well-known and alien,

I must be home at last.

—Vikram Seth, ‘The Collected Poems’ Penguin Books

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जो तू हँसी है तो हर इक अधर पे रहना सीख

जो तू हँसी है तो हर इक अधर पे रहना सीख

अगर है अश्क़ तो औरों के ग़म में बहना सीख

अगर है हादिसा तो दिल से दूर-दूर ही रह

अगर है दिल तो सभी हादिसों को सहना सीख

अगर तू कान है तो झूठ के क़रीब न आ

अगर तू होंठ है तो सच बात को ही कहना सीख

अगर तू फूल है तो खिल सभी के आँगन में

अगर तू जुल्म की दीवार है तो ढहना सीख

अहम् नहीं है तो आ तू ‘कुँवर’ के साथ में चल

अहम् अगर है तो फिर अपने घर में रहना सीख

—कुँवर बेचैन, ‘आँधियों धीरे चलो’ वाणी प्रकाशन

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The Suitor

We lie back to back. Curtains

lift and fall,

like the chest of someone sleeping.

Wind moves the leaves of the box elder;

they show their light undersides,

turning all at once

like a school of fish.

Suddenly I understand that I am happy.

For months this feeling has been coming closer, stopping

for short visits, like a timid suitor.

—Jane Kenyon,

from Otherwise: New & Selected Poems, by Graywolf Press.

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प्रेम में इतना भर ही रुके रास्ता

कि ज़रा लम्बी राह लेकर 

सर झटक कर, निकला जा सके काम पर।

मन टूटे तो टूटे, देह न टूटे

कि निपटाएँ जा सकें 

भीतर बाहर के सारे काम।

इतनी भर जगे आँच

कि छाती में दबी अगन

चूल्हे में धधकती रहे

उतरती रहे सौंधी रोटियाँ

छुटकी की दाल भात की कटोरी ख़ाली न रहे।

इतने भर ही बहें आंसू

की लोग एक़बार में ही यक़ीन कर लें

आँख में तिनके की गिरने जैसे अटपटे झूठ का।

इतनी ही पीड़ाएँ झोली में डालना ईश्वर!

कि बच्चे भूके रहें, न पति अतृप्त!

सिरहाने कोई किताब रहे

कोई पुकारे तो 

चेहरा ढकने की सहूलत रहे।

बस इतनी भर छूट दे प्रेम 

कि जोग बिजोग की बातें

जीवन में न उतर आएँ।

गंगा बहती रहे

घर-संसार चलता रहे।


— सपना भट्ट, ‘प्रेम में इतना भर ही रुके रास्ता’

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Narrative theology # 1

And I said to him:

Are there answers to all of this?

And he said:

The answer is in a story

and the story is being told.

And I said:

But there is so much pain

And she answered, plainly:

Pain will happen.

Then I said:

Will I ever find meaning?

And they said:

You will find meaning

where you give meaning.

The answer is in a story

and the story isn’t finished.

-Padraig O Tuama, ‘In The Shelter - Finding a home in the world’

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फ़र्ज़ करो

फ़र्ज़ करो हम अहले-वफ़ा हों, फ़र्ज़ करो दीवाने हों

फ़र्ज़ करो ये दोनों बातें झूठी हों अफ़साने हों

फ़र्ज़ करो ये जी की बिपता, जी से जोड़ सुनाई हो

फ़र्ज़ करो अभी और हो इतनी, आधी हमने छुपाई हो

फ़र्ज़ करो तुम्हें ख़ुश करने के, ढूँढें हमनें बहाने हों

फ़र्ज़ करो ये नैन तुम्हारे सचमुच के मैखानें हों

फ़र्ज़ करो ये रोग हो झूठा, झूठी पीत हमारी हो

फ़र्ज़ करो इस पीत के रोग में साँस भी हम पर भारी हो

फ़र्ज़ करो ये जोग बिजोग का हमने ढोंग रचाया हो

फ़र्ज़ करो बस यही हक़ीक़त बाक़ी सबकुछ माया हो

-इब्ने इंशा,

‘प्रतिनिधि कविताएँ’ राजकमल प्रकाशन

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