पास रह कर जुदा-सी लगती है
पास रह कर जुदा-सी लगी है
ज़िंदगी बेवफ़ा सी लगती है
मैं तुम्हारे बग़ैर भी जी लूँ
ये दुआ, बददुआ-सी लगती है
नाम उसका लिखा है आँखों में
आंसुओं की ख़ता-सी लगती है
वह अभी इस तरफ़ से गुज़रा है
ये ज़मीं आसमाँ-सी लगती है
प्यार करना भी जुर्म है शायद
मुझसे दुनिया ख़फ़ा-सी लगती है
—बशीर बद्र, ‘मैं बशीर हूँ’ २०१० वाणी प्रकाशन
ख़्वाब नहीं देखा है
मैंने मुद्दत से कोई ख़्वाब नहीं देखा है
रात खिलने का गुलाबों से महक आने का
ओस की बूँदों में सूरज के समा जाने का
चाँद सी मिट्टी के ज़र्रों से सदा आने का
शहर से दूर किसी गाँव में रह जाने का
खेत खलिहानों में बागों में कहीं गाने का
सुबह घर छोड़ने का, देर से घर आने का
बहते झरनों की खनकती हुई आवाज़ों का
चहचहाती हुई चिड़ियों से लदी शाख़ों का
नरगिसी आँखों में हंसती हुई नादानी का
मुस्कुराते हुए चेहरे की ग़ज़लख़्वानी का
तेरा हो जाने तेरे प्यार में खो जाने का
तेरा कहलाने का तेरा ही नज़र आने का
मैंने मुद्दत से कोई ख़्वाब नहीं देखा है
हाथ रख दे मिरी आँखों पे कि नींद आ जाये
—वसीम बरेलवी, ‘मौसम अंदर-बाहर के’ २००८ वाणी प्रकाशन
बारिश आने से पहले
बारिश आने से पहले
बारिश से बचने की तैयारी है
सारी दरारें बंद कर लीं हैं
और लीप के छत, अब छतरी भी मढ़वा ली है
खिड़की जो खुलती है बाहर
उसके ऊपर भी एक छज्जा खींच दिया है
मेन सड़क से गली में होकर, दरवाज़े तक आता रास्ता
बजरी-मिट्टी डाल के उसको कूट रहे हैं!
यहीं कहीं कुछ गड़हों में
बारिश आती है तो पानी भर जाता है
जूते पाँव, पाएँचे सब सन जाते हैं
गले न पड़ जाये सतरंगी
भीग न जाएँ बादल से
सावन से बच कर जीते हैं
बारिश आने से पहले
बारिश से बचने की तैयारी जारी है!
—गुलज़ार
वक़्ते रुख़्सत कहीं तारे कहीं जुगनू आए
वक़्ते रुख़्सत कहीं तारे कहीं जुगनू आए
हार पहनाने मुझे फूल से बाज़ू आए
बस गयी है मेरे एहसास में ये कैसी महक
कोई ख़ुशबू मैं लगाऊँ तेरी ख़ुशबू आए
इन दिनों आपका आलम भी अजब आलम है
तीर खाया हुआ जैसे कोई आहू आए
उसकी बातें कि गुलोलाला पे शबनम बरसे
सबको अपनाने का उस शोख़ को जादू आए
उसने छूकर मुझे पत्थर से फिर इन्सान किया
मुद्दतों बाद मेरी आँखों में आँसू आए
—बशीर बद्र, ‘कल्चर यक्साँ’ वाणी प्रकाशन
हंस रहा था मैं बहुत गो वक्त वह रोने का था
हंस रहा था मैं बहुत गो वक्त वह रोने का था
सख़्त कितना मर्हला तुझ से जुदा होने का था
रतजगे तक़सीम करती फिर रही हैं शहर में
शौक़ जिन आँखों को कल तक रात में सोने का था
इस सफ़र में बस मेरी तन्हाई मेरे साथ थी
हर क़दम क्यों ख़ौफ़ मुझ को भीड़ में खोने का था
हर बुन-ए-मू1 से दरिंदो की सदा आने लगी
काम ही ऐसा बदन में ख़्वाहिशें बोने का था
मैंने जब से यह सुना है ख़ुद से भी नादिम हूँ मैं
ज़िक्र तुझ होंठों पे मेरे दर-बदर होने का था
— शहरयार, ‘कहीं कुछ कम है’ वाणी प्रकाशन
1बाल की जड़
मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ, वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूँ
मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ
वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूँ
एक जंगल है तेरी आँखों में
मैं जहाँ राह भूल जाता हूँ
तू किसी रेल-सी गुज़रती है
मैं किसी पुल-सा थरथराता हूँ
हर तरफ़ ऐतराज़ होता है
मैं अगर रौशनी में आता हूँ
एक बाज़ू उखड़ गया जबसे
और ज़्यादा वज़न उठाता हूँ
मैं तुझे भूलने की कोशिश में
आज कितने क़रीब पाता हूँ
कौन ये फ़ासला निभाएगा
मैं फ़रिश्ता हूँ सच बताता हूँ
—दुष्यंत कुमार, ‘साये में धूप’
जो तू हँसी है तो हर इक अधर पे रहना सीख
जो तू हँसी है तो हर इक अधर पे रहना सीख
अगर है अश्क़ तो औरों के ग़म में बहना सीख
अगर है हादिसा तो दिल से दूर-दूर ही रह
अगर है दिल तो सभी हादिसों को सहना सीख
अगर तू कान है तो झूठ के क़रीब न आ
अगर तू होंठ है तो सच बात को ही कहना सीख
अगर तू फूल है तो खिल सभी के आँगन में
अगर तू जुल्म की दीवार है तो ढहना सीख
अहम् नहीं है तो आ तू ‘कुँवर’ के साथ में चल
अहम् अगर है तो फिर अपने घर में रहना सीख
—कुँवर बेचैन, ‘आँधियों धीरे चलो’ वाणी प्रकाशन