The Orange
At lunchtime I bought a huge orange—
The size of it made us all laugh.
I peeled it and shared it with Robert and Dave—
They got quarters and I had a half.
And that orange, it made me so happy,
As ordinary things often do
Just lately. The shopping. A walk in the park.
This is peace and contentment. It’s new.
The rest of the day was quite easy.
I did all the jobs on my list
And enjoyed them and had some time over.
I love you. I’m glad I exist.
— Wendy Cope
प्रेम में इतना भर ही रुके रास्ता
कि ज़रा लम्बी राह लेकर
सर झटक कर, निकला जा सके काम पर।
मन टूटे तो टूटे, देह न टूटे
कि निपटाएँ जा सकें
भीतर बाहर के सारे काम।
इतनी भर जगे आँच
कि छाती में दबी अगन
चूल्हे में धधकती रहे
उतरती रहे सौंधी रोटियाँ
छुटकी की दाल भात की कटोरी ख़ाली न रहे।
इतने भर ही बहें आंसू
की लोग एक़बार में ही यक़ीन कर लें
आँख में तिनके की गिरने जैसे अटपटे झूठ का।
इतनी ही पीड़ाएँ झोली में डालना ईश्वर!
कि बच्चे भूके रहें, न पति अतृप्त!
सिरहाने कोई किताब रहे
कोई पुकारे तो
चेहरा ढकने की सहूलत रहे।
बस इतनी भर छूट दे प्रेम
कि जोग बिजोग की बातें
जीवन में न उतर आएँ।
गंगा बहती रहे
घर-संसार चलता रहे।
— सपना भट्ट, ‘प्रेम में इतना भर ही रुके रास्ता’
फ़र्ज़ करो
फ़र्ज़ करो हम अहले-वफ़ा हों, फ़र्ज़ करो दीवाने हों
फ़र्ज़ करो ये दोनों बातें झूठी हों अफ़साने हों
फ़र्ज़ करो ये जी की बिपता, जी से जोड़ सुनाई हो
फ़र्ज़ करो अभी और हो इतनी, आधी हमने छुपाई हो
फ़र्ज़ करो तुम्हें ख़ुश करने के, ढूँढें हमनें बहाने हों
फ़र्ज़ करो ये नैन तुम्हारे सचमुच के मैखानें हों
फ़र्ज़ करो ये रोग हो झूठा, झूठी पीत हमारी हो
फ़र्ज़ करो इस पीत के रोग में साँस भी हम पर भारी हो
फ़र्ज़ करो ये जोग बिजोग का हमने ढोंग रचाया हो
फ़र्ज़ करो बस यही हक़ीक़त बाक़ी सबकुछ माया हो
-इब्ने इंशा,
‘प्रतिनिधि कविताएँ’ राजकमल प्रकाशन