पास रह कर जुदा-सी लगती है
पास रह कर जुदा-सी लगी है
ज़िंदगी बेवफ़ा सी लगती है
मैं तुम्हारे बग़ैर भी जी लूँ
ये दुआ, बददुआ-सी लगती है
नाम उसका लिखा है आँखों में
आंसुओं की ख़ता-सी लगती है
वह अभी इस तरफ़ से गुज़रा है
ये ज़मीं आसमाँ-सी लगती है
प्यार करना भी जुर्म है शायद
मुझसे दुनिया ख़फ़ा-सी लगती है
—बशीर बद्र, ‘मैं बशीर हूँ’ २०१० वाणी प्रकाशन
ख़्वाब नहीं देखा है
मैंने मुद्दत से कोई ख़्वाब नहीं देखा है
रात खिलने का गुलाबों से महक आने का
ओस की बूँदों में सूरज के समा जाने का
चाँद सी मिट्टी के ज़र्रों से सदा आने का
शहर से दूर किसी गाँव में रह जाने का
खेत खलिहानों में बागों में कहीं गाने का
सुबह घर छोड़ने का, देर से घर आने का
बहते झरनों की खनकती हुई आवाज़ों का
चहचहाती हुई चिड़ियों से लदी शाख़ों का
नरगिसी आँखों में हंसती हुई नादानी का
मुस्कुराते हुए चेहरे की ग़ज़लख़्वानी का
तेरा हो जाने तेरे प्यार में खो जाने का
तेरा कहलाने का तेरा ही नज़र आने का
मैंने मुद्दत से कोई ख़्वाब नहीं देखा है
हाथ रख दे मिरी आँखों पे कि नींद आ जाये
—वसीम बरेलवी, ‘मौसम अंदर-बाहर के’ २००८ वाणी प्रकाशन