Poetry Alok Saini Poetry Alok Saini

किरदार होना चाहिए

ना कि गोया हाज़िर ए दरबार होना चाहिए
आदमी को साहिब ए किरदार होना चाहिए

थूक दें फिर चाट लें, फिर थूक कर फिर चाट लें
इस सियासी रस्म पे धिक्कार होना चाहिए

थे बहुत वादे, मगर वादों का हासिल कुछ नहीं
हां, मेरे महबूब को सरकार होना चाहिए

नब्ज़ में थाम कर ये कह गए हैं चारागर
बस यही ईलाज है, दीदार होना चाहिए

मौसमों से क्या शिकायत, फितरतों से क्या गिला
कुदरती बदलाव है स्वीकार होना चाहिए

राख हो कर ही रहेंगी ज़िंदगी की मुश्किलें
खून तेज़ाबी, जिगर अंगार होना चाहिए

धूप में होगी ज़रूरत इसकी भी औ’ उसकी भी
पांव में जूता, सिर पे दस्तार होना चाहिए

फुरसतों की चाह में निकले दुआ दिल से यही
सात में से आठ दिन इतवार होना चाहिए

—अर्चना अर्चन

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Poetry Alok Saini Poetry Alok Saini

ख़्वाब नहीं देखा है

मैंने मुद्दत से कोई ख़्वाब नहीं देखा है

रात खिलने का गुलाबों से महक आने का

ओस की बूँदों में सूरज के समा जाने का

चाँद सी मिट्टी के ज़र्रों से सदा आने का

शहर से दूर किसी गाँव में रह जाने का

खेत खलिहानों में बागों में कहीं गाने का

सुबह घर छोड़ने का, देर से घर आने का

बहते झरनों की खनकती हुई आवाज़ों का

चहचहाती हुई चिड़ियों से लदी शाख़ों का

नरगिसी आँखों में हंसती हुई नादानी का

मुस्कुराते हुए चेहरे की ग़ज़लख़्वानी का

तेरा हो जाने तेरे प्यार में खो जाने का

तेरा कहलाने का तेरा ही नज़र आने का

मैंने मुद्दत से कोई ख़्वाब नहीं देखा है

हाथ रख दे मिरी आँखों पे कि नींद आ जाये

—वसीम बरेलवी, ‘मौसम अंदर-बाहर के’ २००८ वाणी प्रकाशन

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