किरदार होना चाहिए
ना कि गोया हाज़िर ए दरबार होना चाहिए
आदमी को साहिब ए किरदार होना चाहिए
थूक दें फिर चाट लें, फिर थूक कर फिर चाट लें
इस सियासी रस्म पे धिक्कार होना चाहिए
थे बहुत वादे, मगर वादों का हासिल कुछ नहीं
हां, मेरे महबूब को सरकार होना चाहिए
नब्ज़ में थाम कर ये कह गए हैं चारागर
बस यही ईलाज है, दीदार होना चाहिए
मौसमों से क्या शिकायत, फितरतों से क्या गिला
कुदरती बदलाव है स्वीकार होना चाहिए
राख हो कर ही रहेंगी ज़िंदगी की मुश्किलें
खून तेज़ाबी, जिगर अंगार होना चाहिए
धूप में होगी ज़रूरत इसकी भी औ’ उसकी भी
पांव में जूता, सिर पे दस्तार होना चाहिए
फुरसतों की चाह में निकले दुआ दिल से यही
सात में से आठ दिन इतवार होना चाहिए
—अर्चना अर्चन
रोटी और कविता
सँयुक्ता के लिए
जो रोटी बनाता है, कविता नहीं लिखता
जो कविता लिखता है, रोटी नहीं बनाता
दोनों का आपस में कोई रिश्ता नहीं दिखता ।
लेकिन वह क्या है
जब एक रोटी खाते हुए लगता है
कविता पढ़ रहे हैं
और कोई कविता पढ़ते हुए लगता है
रोटी खा रहे हैं ।
—मंगलेश डबराल
परम सुख
जंगल के उस छोर पर
तुम्हारे साथ
सूखे पत्तों के बीच बैठे हुए
बासी अखबार पर
रखकर
तुम्हारे हाथों से खाई
थोड़ी सूखी हुई रोटी ने
आत्मा को जो परमसुख दिया
देह के पाए
सब चरम सुख
उसी एक पल में
आजू- बाजू बिखरे
अचरज से पलकें झपकाते हुए
सोचने लगे
हम किस गुमान पर
आज तलक इतरा रहे थे!
मैंने एक मुस्कान
उन्हें देते हुए कहा था
दिल छोटा मत करो
तुम्हारा होना
थोड़ा और पास करता रहा है हमें
इसलिए
तुम्हारा भी शुक्रिया।
—सुषमा गुप्ता
माँ गुजर जाने के बाद
ब्याहता बिटिया के हक में फर्क पड़ता है बहुत
छूटती मैके की सरहद माँ गुजर जाने के बाद
अब नहीं आता संदेसा मान मनुहारों भरा
खत्म रिश्तों की लगावट माँ गुजर जाने के बाद
जो कभी था मेरा आँगन, घर मेरा, कमरा मेरा
अब वहाँ अनदेखे बंधन, माँ गुजर जाने के बाद
अब तो यूँ ही तारीखों पर निभ रहे त्योहार सब
खत्म वो रस्मे रवायत, माँ गुजर जाने के बाद
आए ना माँ की रसोई की वो भीनी सी महक
उठ गया मैके का दाना, माँ गुजर जाने के बाद
वो दीवाली की सजावट, फाग के वो गीत सारे
हो गई बिसरी सी बातें, माँ गुजर जाने के बाद
—भारती पंडित
बहाने से जीवन जीती है औरत
बहाने से जीवन जीती है औरत
थकने पर सिलाई-बुनाई का बहाना
नाज बीनने और मटर छीलने का बहाना
आँखें मूँद कुछ देर माला जपने का बहाना
रामायण और भागवत सुनने का बहाना
घूमने के लिए चलिहा* बद मन्दिर जाने का बहाना
सब्जी-भाजी, चूड़ी-बिन्दी खरीदने का बहाना
बच्चों को स्कूल ले जाने-लाने का बहाना
प्राम उठा नन्हें को घुमाने का बहाना
सोने के लिए बच्चे को सुलाने का बहाना
गाने के लिए लोरी सुनाने का बहाना
सजने के लिए पति-रिश्तेदारों का बहाना
रोने के लिए प्याज छीलने का बहाना
जीने के लिए औरों की ज़रूरतों का बहाना
अपने होने का बहाना ढूँढती है औरत
इसी तरह जीवन को जीती है औरत
बहाने से जीवन जीती है औरत…..
*चालीस दिनों तक नियमित रूप से मंदिर जाने का संकल्प
—सुमन केशरी
जहाँ से भी निकलो
जहाँ से भी निकलना हो
एक साथ मत निकलो,
अपने आपको पूरा समेट कर,
एक झटके से मत निकलो।
ऐसे आँधी की तरह मत जाओ कि
जब कोई चौंक कर देखे तुम्हारी तरफ़
तो उसे बस झटके से ही बंद होता
दरवाज़ा दिखे।
कहीं से भी निकलो,
निकलो धीरे धीरे।
तुम्हारे चलने में चाल हो
सुबह की मंद बहती हवा की।
कान हों ध्यान मुद्रा में,
किसी के रोकने की आवाज़ सुनने की।
एक बार मुड कर देखना ज़रूर,
शायद कोई हाथ उठा हो
तुम्हें वापस बुलाने के लिये।
जहाँ से भी निकलो,
निकलो धीरे-धीरे,
किसी सभा से, किसी संबंध से
या किसी के मन से।
—संजीव निगम