Poetry Alok Saini Poetry Alok Saini

पास रह कर जुदा-सी लगती है

पास रह कर जुदा-सी लगी है

ज़िंदगी बेवफ़ा सी लगती है

मैं तुम्हारे बग़ैर भी जी लूँ

ये दुआ, बददुआ-सी लगती है

नाम उसका लिखा है आँखों में

आंसुओं की ख़ता-सी लगती है

वह अभी इस तरफ़ से गुज़रा है

ये ज़मीं आसमाँ-सी लगती है

प्यार करना भी जुर्म है शायद

मुझसे दुनिया ख़फ़ा-सी लगती है

—बशीर बद्र, ‘मैं बशीर हूँ’ २०१० वाणी प्रकाशन 

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Poetry Alok Saini Poetry Alok Saini

ख़्वाब नहीं देखा है

मैंने मुद्दत से कोई ख़्वाब नहीं देखा है

रात खिलने का गुलाबों से महक आने का

ओस की बूँदों में सूरज के समा जाने का

चाँद सी मिट्टी के ज़र्रों से सदा आने का

शहर से दूर किसी गाँव में रह जाने का

खेत खलिहानों में बागों में कहीं गाने का

सुबह घर छोड़ने का, देर से घर आने का

बहते झरनों की खनकती हुई आवाज़ों का

चहचहाती हुई चिड़ियों से लदी शाख़ों का

नरगिसी आँखों में हंसती हुई नादानी का

मुस्कुराते हुए चेहरे की ग़ज़लख़्वानी का

तेरा हो जाने तेरे प्यार में खो जाने का

तेरा कहलाने का तेरा ही नज़र आने का

मैंने मुद्दत से कोई ख़्वाब नहीं देखा है

हाथ रख दे मिरी आँखों पे कि नींद आ जाये

—वसीम बरेलवी, ‘मौसम अंदर-बाहर के’ २००८ वाणी प्रकाशन

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