रोटी और कविता
सँयुक्ता के लिए
जो रोटी बनाता है, कविता नहीं लिखता
जो कविता लिखता है, रोटी नहीं बनाता
दोनों का आपस में कोई रिश्ता नहीं दिखता ।
लेकिन वह क्या है
जब एक रोटी खाते हुए लगता है
कविता पढ़ रहे हैं
और कोई कविता पढ़ते हुए लगता है
रोटी खा रहे हैं ।
—मंगलेश डबराल
यहाँ ठीक हूँ
जितनी देर में एक शब्द ढूँढते हो
उतनी देर में तों कपड़े पर इस्तिरी हो जाएगी
मेहनती रहे तो एक शर्ट ख़रीद हो सकते हो
बुद्धि भी रही तो कपड़े की दुकान
जिन्हें नसीब है वो तो दुनिया घूम सकते हैं
अब मैं क्या करूँ दुनिया घूमकर
शब्दों की एक बाड़ी है काँटो भरी,
फूल भी कुछ आज के कुछ पुराने
और है ही हवा, और जल, शहद, नमक
ज...ल...श...ह...द...न...म...क....।
—मनोज कुमार झा
जहाँ से भी निकलो
जहाँ से भी निकलना हो
एक साथ मत निकलो,
अपने आपको पूरा समेट कर,
एक झटके से मत निकलो।
ऐसे आँधी की तरह मत जाओ कि
जब कोई चौंक कर देखे तुम्हारी तरफ़
तो उसे बस झटके से ही बंद होता
दरवाज़ा दिखे।
कहीं से भी निकलो,
निकलो धीरे धीरे।
तुम्हारे चलने में चाल हो
सुबह की मंद बहती हवा की।
कान हों ध्यान मुद्रा में,
किसी के रोकने की आवाज़ सुनने की।
एक बार मुड कर देखना ज़रूर,
शायद कोई हाथ उठा हो
तुम्हें वापस बुलाने के लिये।
जहाँ से भी निकलो,
निकलो धीरे-धीरे,
किसी सभा से, किसी संबंध से
या किसी के मन से।
—संजीव निगम
आज फिर शुरू हुआ
आज फिर शुरू हुआ जीवन
आज मैंने एक छोटी-सी सरल-सी कविता पढ़ी
आज मैंने सूरज को डूबते दूर तक देखा
जी भर आज मैंने शीतल जल से स्नान किया
आज एक छोटी-सी बच्ची आयी, किलक मेरे कंधे चढ़ी
आज मैंने आदि से अंत तक एक पूरा गान किया
आज फिर जीवन शुरू हुआ
-रघुवीर सहाय, ‘प्रतिनिधि कविताएँ’ राजकमल पेपरबेक्स
प्रेम में इतना भर ही रुके रास्ता
कि ज़रा लम्बी राह लेकर
सर झटक कर, निकला जा सके काम पर।
मन टूटे तो टूटे, देह न टूटे
कि निपटाएँ जा सकें
भीतर बाहर के सारे काम।
इतनी भर जगे आँच
कि छाती में दबी अगन
चूल्हे में धधकती रहे
उतरती रहे सौंधी रोटियाँ
छुटकी की दाल भात की कटोरी ख़ाली न रहे।
इतने भर ही बहें आंसू
की लोग एक़बार में ही यक़ीन कर लें
आँख में तिनके की गिरने जैसे अटपटे झूठ का।
इतनी ही पीड़ाएँ झोली में डालना ईश्वर!
कि बच्चे भूके रहें, न पति अतृप्त!
सिरहाने कोई किताब रहे
कोई पुकारे तो
चेहरा ढकने की सहूलत रहे।
बस इतनी भर छूट दे प्रेम
कि जोग बिजोग की बातें
जीवन में न उतर आएँ।
गंगा बहती रहे
घर-संसार चलता रहे।
— सपना भट्ट, ‘प्रेम में इतना भर ही रुके रास्ता’
फ़र्ज़ करो
फ़र्ज़ करो हम अहले-वफ़ा हों, फ़र्ज़ करो दीवाने हों
फ़र्ज़ करो ये दोनों बातें झूठी हों अफ़साने हों
फ़र्ज़ करो ये जी की बिपता, जी से जोड़ सुनाई हो
फ़र्ज़ करो अभी और हो इतनी, आधी हमने छुपाई हो
फ़र्ज़ करो तुम्हें ख़ुश करने के, ढूँढें हमनें बहाने हों
फ़र्ज़ करो ये नैन तुम्हारे सचमुच के मैखानें हों
फ़र्ज़ करो ये रोग हो झूठा, झूठी पीत हमारी हो
फ़र्ज़ करो इस पीत के रोग में साँस भी हम पर भारी हो
फ़र्ज़ करो ये जोग बिजोग का हमने ढोंग रचाया हो
फ़र्ज़ करो बस यही हक़ीक़त बाक़ी सबकुछ माया हो
-इब्ने इंशा,
‘प्रतिनिधि कविताएँ’ राजकमल प्रकाशन