तेरी बातें ही सुनाने आए
तेरी बातें ही सुनाने आए
दोस्त भी दिल ही दुखाने आए
फूल खिलते हैं तो हम सोचते हैं
तेरे आने के ज़माने आए
ऐसी कुछ चुप सी लगी है जैसे
हम तुझे हाल सुनाने आए
इश्क़ तनहा है सर-ए-मंज़िल-ए-ग़म
कौन ये बोझ उठाने आए
अजनबी दोस्त हमें देख कि हम
कुछ तुझे याद दिलाने आए
दिल धड़कता है सफ़र के हंगाम
काश फिर कोई बुलाने आए
अब तो रोने से भी दिल दुखता है
शायद अब होश ठिकाने आए
क्या कहीं फिर कोई बस्ती उजड़ी
लोग क्यूँ जश्न मनाने आए
सो रहो मौत के पहलू में ‘फ़राज़’
नींद किस वक़्त न जाने आए
—अहमद फ़राज़
हंस रहा था मैं बहुत गो वक्त वह रोने का था
हंस रहा था मैं बहुत गो वक्त वह रोने का था
सख़्त कितना मर्हला तुझ से जुदा होने का था
रतजगे तक़सीम करती फिर रही हैं शहर में
शौक़ जिन आँखों को कल तक रात में सोने का था
इस सफ़र में बस मेरी तन्हाई मेरे साथ थी
हर क़दम क्यों ख़ौफ़ मुझ को भीड़ में खोने का था
हर बुन-ए-मू1 से दरिंदो की सदा आने लगी
काम ही ऐसा बदन में ख़्वाहिशें बोने का था
मैंने जब से यह सुना है ख़ुद से भी नादिम हूँ मैं
ज़िक्र तुझ होंठों पे मेरे दर-बदर होने का था
— शहरयार, ‘कहीं कुछ कम है’ वाणी प्रकाशन
1बाल की जड़