Alok Saini Alok Saini

कॉल

कभी कभी

किसी सुबह ऐसे ही

मैं हिंदी की कोई क़िताब उठा कर पढ़ने लगता हूँ

क़िताब नहीं तो कोई पैकेजिंग या कहीं पड़ी शब्दों की कुछ कतरनें

“अतः उनके साहित्य में भारतीयता का स्वर स्पष्ट रूप से मुखरित हुआ है”

“चलते चलते मेरे पाँव ठिठक गये”

“गर्म पानी या चाय में मिलायें”

जैसे दूसरे शहर में काम करने वाली संतान

अपने माँ-बाप को कॉल कर लेती है किसी सुबह

“बस ऐसे ही”

“बहुत दिन हो गये थे बात नहीं हुई थी, सोचा हाल चाल पूछ लूँ”

“आप लोग ठीक हो न”


-आलोक, १०/१२/२०२३

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