Alok Saini Alok Saini

जहाँ से भी निकलो

जहाँ से भी निकलना हो

एक साथ मत निकलो,

अपने आपको पूरा समेट कर,

एक झटके से मत निकलो।

ऐसे आँधी की तरह मत जाओ कि

जब कोई चौंक कर देखे तुम्हारी तरफ़

तो उसे बस झटके से ही बंद होता

दरवाज़ा दिखे।

कहीं से भी निकलो,

निकलो धीरे धीरे।

तुम्हारे चलने में चाल हो

सुबह की मंद बहती हवा की।

कान हों ध्यान मुद्रा में,

किसी के रोकने की आवाज़ सुनने की।

एक बार मुड कर देखना ज़रूर,

शायद कोई हाथ उठा हो

तुम्हें वापस बुलाने के लिये।

जहाँ से भी निकलो,

निकलो धीरे-धीरे,

किसी सभा से, किसी संबंध से

या किसी के मन से।


—संजीव निगम  

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