आँख को जाम लिखो ज़ुल्फ़ को बरसात लिखो

आँख को जाम लिखो ज़ुल्फ़ को बरसात लिखो

जिससे नाराज़ हो उस शख़्स की हर बात लिखो

जिससे मिलकर भी न मिलने की कसक बाक़ी है

उसी अनजान शनासा की मुलाक़ात लिखो

जिस्म मस्जिद की तरह, आँखें नमाज़ों जैसी

जब गुनाहों में इबादत थी वो दिन-रात लिखो

इस कहानी का तो अंजाम वही है कि जो था

तुम जो चाहो तो मोहब्बत की शुरुआत लिखो

जब भी देखो उसे अपनी ही नज़र से देखो

कोई कुछ भी कहे तुम अपने ख़यालात लिखो

— निदा फ़ाज़ली, ‘मौसम आते जाते हैं’ २००८, डायमंड पॉकेट बुक्स

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