दर हैं दस जिसमें हज़ारों खिड़कियाँ 

दर हैं दस जिसमें हज़ारों खिड़कियाँ 

जिस्म है या इक तिलिस्माती मकाँ

आग की लपटें, न वो उठता धुआँ

राख ऐसे भी हुई कुछ बस्तियाँ

इस क़दर नीची हुई ऊँचाइयाँ 

चढ़ गयी हैं चोटियों पर चीटियाँ

ज़िंदगी और मुफ़लिसी की गुफ़्तगू

जैसे तुतलाती हुई दो बच्चियाँ

मुल्क जैसे हो गए तक़्सीम हम

कितना कुछ बाक़ी है फिर भी दरमियाँ

भेजता हूँ रोज़ लानत पेट पर

रोज़ सी देता हैं जो मेरी ज़ुबाँ

कुछ हैं जिनसे ख़ौफ़ खातें हैं भँवर

पार लग जाती हैं उनकी कश्तियाँ 

फूल सारे देखते ही रह गए

जाने किसकी खोज में थीं तितलियाँ

मोड़ आया ही नहीं यारब कोई

ख़त्म होने को है अपनी दास्ताँ


—राजेश रेड्डी, ‘वूजूद’ वाणी प्रकाशन 

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