Alok Saini

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हंस रहा था मैं बहुत गो वक्त वह रोने का था

हंस रहा था मैं बहुत गो वक्त वह रोने का था

सख़्त कितना मर्हला तुझ से जुदा होने का था 

रतजगे तक़सीम करती फिर रही हैं शहर में

शौक़ जिन आँखों को कल तक रात में सोने का था 

इस सफ़र में बस मेरी तन्हाई मेरे साथ थी

हर क़दम क्यों ख़ौफ़ मुझ को भीड़ में खोने का था

हर बुन-ए-मू1 से दरिंदो की सदा आने लगी

काम ही ऐसा बदन में ख़्वाहिशें बोने का था

मैंने जब से यह सुना है ख़ुद से भी नादिम हूँ मैं

ज़िक्र तुझ होंठों पे मेरे दर-बदर होने का था 

— शहरयार, ‘कहीं कुछ कम है’ वाणी प्रकाशन

1बाल की जड़